श्रीमती जमुना देवी सरस्वती विद्या मंदिर, उमरांग्सू


Smt. Jamuna Devi Saraswati Vidya Mandir, Umrangso; श्रीमती जमुना देवी सरस्वती विद्या मंदिर, उमरांग्सू ! श्रीमती जमुना देवी सरस्वती विद्या मंदिर आवासीय उच्च विद्यालय की स्थापना के प्रेरणा श्रोत रहे हैं- विनय सीमेंट लिमिटेड के प्रबंध निदेशक श्री विनोद बावरी, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, असम के तत्कालिक प्रांत प्रचारक श्री श्रीकांत जी जोशी एवं विद्या भारती पूर्वोत्तर क्षेत्र के तत्कालीन संगठन मंत्री श्री शांतनू रघुनाथ शेंडे व लांगचीरुई ग्राम के ग्रामवासी ! इन सबके साथ उमरांग्सू (Umrangso), नगर के समाज की सहभागिता ही विद्यालय एवं उसके विभिन्न कार्यों के विकास की गाथा है ! जो सदा स्मरणीय रहेगी ! यह विद्यालय सन १९८७ में प्रारम्भ हुआ ! सरस्वती विद्या मंदिर परिचालना समिति,बडा हाफलांग के द्वारा यह विद्यालय संचालित किया जाता है! शिक्षा विकास परिसद, दक्षिण असम के द्वारा मार्ग्दर्शित यह विद्यालय विद्या भारतीय अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान द्वारा संबंधित है !

शिशु वाटिका

 (पूर्व प्राथमिक शिक्षा)


भारत में सामान्यता प्राथमिक विद्यालयों में ६ वर्ष की आयु पूर्ण होने पर बालक कक्षा प्रथम में प्रवेश लेकर अपने औपचारिक शिक्षा आरम्भ करता है. वर्ष से वर्ष का उसका समय प्रायः परिवार में ही व्यतीत होता है. प्राचीन काल में भारत में जब परिवार संस्था सांस्कृतिक दृष्टि से सशक्त थी उस समय बालक परिवार के स्नेहपूर्ण वातावरण में रहकर योग्य संस्कार ग्रहण कर विकास करता था. माता ही उसकी प्रथम शिक्षिका होती थी. किन्तु आधुनिक काल में औद्योगिक विकास एवं पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव विशेष रूप से नगरों मेंपरिवारों पर भी हुआ और इसके परिणामस्वरूप वर्ष का होते ही बालक को स्कूल भेजने की आवश्यकता अनुभव होने लगी. नगरों में इस आयु वर्ग के बच्चों के लिए "मोंटेसरी", "किंडरगार्टन" या नर्सरी स्कूलों के नाम पर विद्यालयों की संख्या बढ़ने लगी. नगरों एवं महानगरों के गली-गली में ये विद्यालय खुल गए और संचालकों के लिए व्यवसाय के रूप में अच्छे धनार्जन करने के साधन बन गए.

मोंटेसरी या किंडरगार्टन के नाम पर चलने वाले इन विद्यालयों में कोमल शिशुओं पर शिक्षा की दृष्टि से घोर अत्याचार होता है. भारी-भारी बस्तों के बोझ ने इनके बचपन को उनसे छीन लिया. अंग्रेजी माध्यम के नाम पर पश्चिमीकरण की प्रक्रिया तीव्र गति से चल रही है. देश के लिए घातक इस परिस्थिति को देखकर विद्या भारती ने पूर्व प्राथमिक शिक्षा की ओर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित किया. भारतीय संस्कृति एवं स्वदेशी परिवेश के अनुरूप शिशु शिक्षा पद्धति "शिशु वाटिका" का विकास किया.
शिशु का शारीरिकमानसिकभावात्मकसामाजिक एवं आध्यात्मिक विकास की अनौपचारिक शिक्षा पद्धति "शिशु वाटिका" के नाम से प्रचलित हुई. अक्षर ज्ञान और अंक ज्ञान के लिए पुस्तकों और कापियों के बोझ से शिशु को मुक्ति प्रदान की गयी.
खेलगीतकथा कथनइन्द्रिय विकासभाषा-कौशलविज्ञान अनुभव,रचनात्मक-कार्यमुक्त व्यवसायचित्रकला-हस्तकलादैनन्दिन जीवन व्यवहार आदि के अनौपचारिक कार्यकलापों के माध्यम से "शिशु वाटिका" कक्षाएँ शिशुओं की आनंद भरी किलकारियों से गूंजती हैं और शिशु सहज भाव से शिक्षा और संस्कार प्राप्त कर विकास करते हैं.

विद्या भारती ने शिशुओं के साथ उनके माता-पिता एवं परिवारों को भी प्रशिक्षित एवं संस्कारित करने का कार्यक्रम "शिशु वाटिका" के अंतर्गत अपनाया है. शिशु के समुचित विकास में परिवार विशेष रूप से माता का दायित्व है. इस दायित्व बोध का जागरण एवं हिंदुत्व के संस्कारों से युक्त घाट का वातावरण निर्माण करने का प्रयास देश भर में "शिशु वाटिका" के माध्यम से हो रहा है

Shishu Vatika


In our country, children usually commence their formal education after completing 6 years of age when they are admitted to class one of primary schools. A child usually lives with parents and other members of family until then. In earlier times when the family system was well organized in India, the child grew in the amiable environment provided by the family and received all appropriate Sanskars in the family itself. The mother of the child was also its first teacher. In modern times, however, industrial and growing influence of western civilization has affected the family system also, particularly in the cities. Now-a-days it has become necessary to send a child to the school at an early age of 2.6 years. The number of schools for this age group, known variously as montessary, kindergarten or Nursery school, has been steadily increasing in the cities. These schools have sprung up in every nook and corner of metropolitan and other big cities, and have become a lucrative source of earning for their organizers. 

For an educational point of view, these schools operating under the guise of Montessary or Kindergarten schools are doing great injustice to tender children. Heavy school bags have deprived them of their childhood. Westernization is making rapid inroads in the name of English medium education. Saraswati School has taken note of the danger posed to the nation by this development and has focused its attention on pre-primary education also. An indigenous system of pre-primary education based on Bharatiya Sanskriti and our country' environment has been developed and given the name of 'Shishu Vatika' (literally meaning Kindergarten). This is a non-formal system of education aimed at physical, psychological, emotional, social and spiritual development of the child. The children are free from the burden of books. Notebooks, etc. imposed upon them just for acquiring literacy and numeracy skills. Games, songs, language etiquette skill, drawing, crafts, etc. are developed through non-formal activities. The 'Shishu Vatika' reverberates with children's joyful sounds as they undertake various activities which impart education and sanskar in a natural way.
Saraswati School has chalked out a program to educate the parents and other members of the families of children attending Shishu Vatika. The family, particularly the mother, plays an important role in the balanced growth of the child. Saraswati School’s program includes training to provide an enlightened and cultured family environment to the child.



लज्जाराम तोमर

विद्या भारती के स्तम्भ लज्जाराम तोमर


lajja ram tomar

भारत में लाखों सरकारी एवं निजी विद्यालय हैं; पर शासकीय सहायता के बिना स्थानीय हिन्दू जनता के सहयोग एवं विश्वास के बल पर काम करने वाली संस्था ‘विद्या भारती’ सबसे बड़ी शिक्षा संस्था है. इसे देशव्यापी बनाने में जिनका बहुत महत्वपूर्ण योगदान रहा, वे थे 21 जुलाई, 1930 को गांव वघपुरा (मुरैना, म.प्र.) में जन्मे श्री लज्जाराम तोमर.

लज्जाराम जी के परिवार की उस क्षेत्र में अत्यधिक प्रतिष्ठा थी. मेधावी छात्र होने के कारण सभी परीक्षाएं उच्च श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद उन्होंने 1957 में एम.ए तथा बी.एड किया. उनकी अधिकांश शिक्षा आगरा में हुई. 1945 में वे संघ के सम्पर्क में आये. उस समय उ.प्र. के प्रांत प्रचारक थे श्री भाउराव देवरस. अपनी पारखी दृष्टि से वे लोगों को तुरंत पहचान जाते थे. लज्जाराम जी पर भी उनकी दृष्टि थी. अब तक वे आगरा में एक इंटर कालिज में प्राध्यापक हो चुके थे. उनकी गृहस्थी भी भली प्रकार चल रही थी.

लज्जाराम जी इंटर कालिज में और उच्च पद पर पहुंच सकते थे; पर भाउराव के आग्रह पर वे सरकारी नौकरी छोड़कर सरस्वती शिशु मंदिर योजना में आ गये. यहां शिक्षा संबंधी उनकी कल्पनाओं के पूरा होने के भरपूर अवसर थे. उन्होंने अनेक नये प्रयोग किये, जिसकी ओर विद्या भारती के साथ ही अन्य सरकारी व निजी विद्यालयों के प्राचार्य तथा प्रबंधक भी आकृष्ट हुए. आपातकाल के विरोध में उन्होंने जेल यात्रा भी की.

इन्हीं दिनों उनके एकमात्र पुत्र के देहांत से उनका मन विचलित हो गया. वे छात्र जीवन से ही योग, प्राणायाम, ध्यान और साधना करते थे. अतः इस मानसिक उथल-पुथल में वे संन्यास लेने पर विचार करने लगे; पर भाउराव देवरस उनकी अन्तर्निहित क्षमताओं को जानते थे. उन्होंने उनके विचारों की दिशा बदल कर उसे समाजोन्मुख कर दिया. उनके आग्रह पर लज्जाराम जी ने संन्यास के बदले अपना शेष जीवन शिक्षा विस्तार के लिए समर्पित कर दिया.

उस समय तक पूरे देश में सरस्वती शिशु मंदिर के नाम से हजारों विद्यालय खुल चुके थे; पर उनका कोई राष्ट्रीय संजाल नहीं था. 1979 में सब विद्यालयों को एक सूत्र में पिरोने के लिए ‘विद्या भारती’ का गठन किया गया और लज्जाराम जी को उसका राष्ट्रीय संगठन मंत्री बनाया गया. उन्हें पढ़ने और पढ़ाने का व्यापक अनुभव तो था ही. इस दायित्व के बाद पूरे देश में उनका प्रवास होने लगा. जिन प्रदेशों में विद्या भारती का काम नहीं था, उनके प्रवास से वहां भी इस संस्था ने जड़ें जमा लीं.

विद्या भारती की प्रगति को देखकर विदेश के लोग भी इस ओर आकृष्ट हुए. अतः उन्हें अनेक अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियों में आमन्त्रित किया गया. उन्होंने भारतीय चिंतन के आधार पर अनेक पुस्तकें भी लिखीं, जिनमें भारतीय शिक्षा के मूल तत्व, प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति, विद्या भारती की चिंतन दिशा, नैतिक शिक्षा के मनोवैज्ञानिक आधार आदि प्रमुख हैं.

उनके कार्यों से प्रभावित होकर उन्हें कई संस्थाओं ने सम्मानित किया. कुरुक्षेत्र के गीता विद्यालय परिसर में उन्होंने संस्कृति संग्रहालय की स्थापना कराई; पर इसी बीच वे कैंसर से पीड़ित हो गये. समुचित चिकित्सा के बाद भी उनके स्वास्थ्य में सुधार नहीं हुआ. 17 नवम्बर, 2004 को विद्या भारती के निराला नगर, लखनऊ स्थित परिसर में उनका शरीरांत हुआ. उनकी अंतिम इच्छानुसार उनका दाह संस्कार उनके पैतृक गांव में ही किया गया

स्तोत्र एवं मंत्र

सरस्वती वंदना

या कुन्देन्दु- तुषारहार- धवला या शुभ्र- वस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमन्डितकरा या श्वेतपद्मासना |
या ब्रह्माच्युत- शंकर- प्रभृतिभिर्देवैः सदा पूजिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ||
शुक्लांब्रह्मविचारसारपरमा- माद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणापुस्तकधारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम् |
हस्ते स्पाटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थितां
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम् ||

हे हंसवाहिनी ज्ञानदायनी 
अम्ब विमल मति दे। अम्ब विमल मति दे॥ 
जग सिरमौर बनाएँ भारत,
वह बल विक्रम दे। वह बल विक्रम दे॥
हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी 
अम्ब विमल मति दे। अम्ब विमल मति दे॥

साहस शील हृदय में भर दे, 
जीवन त्याग-तपोमय कर दे,
संयम सत्य स्नेह का वर दे,
स्वाभिमान भर दे। स्वाभिमान भर दे॥1 

हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी 
अम्ब विमल मति दे। अम्ब विमल मति दे॥

लवकुशध्रुवप्रहलाद बनें 
हम मानवता का त्रास हरें हम, 
सीतासावित्रीदुर्गा माँ, 
फिर घर-घर भर दे। फिर घर-घर भर दे॥2 

हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी 
अम्ब विमल मति दे। अम्ब विमल मति दे॥

ॐ ॐ 
ध्यान

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्॥

ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षँ शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति: ।

वनस्पतये: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति: सर्वँ शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि

॥ ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥


सूर्यनमस्कार मन्त्र


॥ ॐ ध्येयः सदा सवित्र मण्डल मध्यवर्ती नारायण सरसिजा सनसन्नि विष्टः
केयूरवान मकरकुण्डलवान किरीटी हारी हिरण्मय वपुर धृतशंख चक्रः ॥
ॐ मित्राय नमः।
ॐ रवये नमः।
ॐ सूर्याय नमः।
ॐ भानवे नमः।
ॐ खगाय नमः।
ॐ पुषणे नमः।
ॐ हिरण्यगर्भाय नमः।
ॐ मरीचये नमः।
ॐ आदित्याय नमः।
ॐ सवित्रे नमः।
ॐ अर्काय नमः।
ॐ भास्कराय नमः।
ॐ श्रीसवित्रसूर्यनारायणाय नमः।
॥ आदित्यस्य नमस्कारन् ये कुर्वन्ति दिने दिने
आयुः प्रज्ञा बलम् वीर्यम् तेजस्तेशान् च जायते ॥

वन्दे मातरम् 
वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
सस्य श्यामलां मातरंम् .
शुभ्र ज्योत्सनाम् पुलकित यामिनीम्
फुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम् .
सुखदां वरदां मातरम् ॥
सप्त कोटि कण्ठ कलकल निनाद कराले
द्विसप्त कोटि भुजैर्ध्रत खरकरवाले
के बोले मा तुमी अबले
बहुबल धारिणीम् नमामि तारिणीम्
रिपुदलवारिणीम् मातरम् ॥
तुमि विद्या तुमि धर्म, तुमि ह्रदि तुमि मर्म
त्वं हि प्राणाः शरीरे
बाहुते तुमि मा शक्ति,
हृदये तुमि मा भक्ति,
तोमारै प्रतिमा गडि मन्दिरे-मन्दिरे ॥
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी
कमला कमलदल विहारिणी
वाणी विद्यादायिनी, नमामि त्वाम्
नमामि कमलां अमलां अतुलाम्
सुजलां सुफलां मातरम् ॥
श्यामलां सरलां सुस्मितां भूषिताम्
धरणीं भरणीं मातरम् ॥

एकात्मता स्तोत्रम्‌

ॐ सच्चिदानंदरूपाय नमोस्तु परमात्मने
ज्योतिर्मयस्वरूपाय विश्वमांगल्यमूर्तये॥१॥
प्रकृतिः पंचभूतानि ग्रहलोकस्वरास्तथा
दिशः कालश्च सर्वेषां सदा कुर्वंतु मंगलम्‌॥२॥
रत्नाकराधौतपदां हिमालयकिरीटिनीम्‌
ब्रह्मराजर्षिरत्नाढ्याम् वन्दे भारतमातरम्‌ ॥३॥
महेंद्रो मलयः सह्यो देवतात्मा हिमालयः
ध्येयो रैवतको विन्ध्यो गिरिश्चारावलिस्तथा ॥४॥
गंगा सरस्वती सिंधु ब्रह्मपुत्राश्च गंदकी
कावेरी यमुना रेवा कृष्णा गोदा महानदी ॥५॥
अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवंतिका
वैशाली द्वारका ध्येया पुरी तक्शशिला गया ॥६॥
प्रयागः पाटलीपुत्रं विजयानगरं महत्‌
इंद्रप्रस्थं सोमनाथस्तथामृतसरः प्रियम्‌॥७॥
चतुर्वेदाः पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा
रामायणं भारतं च गीता षड्दर्शनानि च ॥८॥
जैनागमास्त्रिपिटकः गुरुग्रन्थः सतां गिरः
एष ज्ञाननिधिः श्रेष्ठः श्रद्धेयो हृदि सर्वदा॥९॥
अरुन्धत्यनसूय च सावित्री जानकी सती
द्रौपदी कन्नगे गार्गी मीरा दुर्गावती तथा ॥१०॥
लक्ष्मी अहल्या चन्नम्मा रुद्रमाम्बा सुविक्रमा
निवेदिता सारदा च प्रणम्य मातृ देवताः ॥११॥
श्री रामो भरतः कृष्णो भीष्मो धर्मस्तथार्जुनः
मार्कंडेयो हरिश्चन्द्र प्रह्लादो नारदो ध्रुवः ॥१२॥
हनुमान्‌ जनको व्यासो वसिष्ठश्च शुको बलिः
दधीचि विश्वकर्माणौ पृथु वाल्मीकि भार्गवः ॥१३॥
भगीरथश्चैकलव्यो मनुर्धन्वन्तरिस्तथा
शिबिश्च रन्तिदेवश्च पुराणोद्गीतकीर्तयः ॥१४॥
बुद्ध जिनेन्द्र गोरक्शः पाणिनिश्च पतंजलिः
शंकरो मध्व निंबार्कौ श्री रामानुज वल्लभौ ॥१५॥
झूलेलालोथ चैतन्यः तिरुवल्लुवरस्तथा
नायन्मारालवाराश्च कंबश्च बसवेश्वरः ॥१६॥
देवलो रविदासश्च कबीरो गुरु नानकः
नरसी तुलसीदासो दशमेषो दृढव्रतः ॥१७॥
श्रीमच्छङ्करदेवश्च बंधू सायन माधवौ
ज्ञानेश्वरस्तुकाराम रामदासः पुरन्दरः ॥१८॥
बिरसा सहजानन्दो रमानन्दस्तथा महान्‌
वितरन्तु सदैवैते दैवीं षड्गुणसंपदम्‌ ॥१९॥
रविवर्मा भातखंडे भाग्यचन्द्रः स भोपतिः
कलावंतश्च विख्याताः स्मरणीया निरंतरम्‌ ॥२०॥
भरतर्षिः कालिदासः श्रीभोजो जनकस्तथा
सूरदासस्त्यागराजो रसखानश्च सत्कविः ॥२१॥
अगस्त्यः कंबु कौन्डिण्यौ राजेन्द्रश्चोल वंशजः
अशोकः पुश्य मित्रश्च खारवेलः सुनीतिमान्‌ ॥२२॥
चाणक्य चन्द्रगुप्तौ च विक्रमः शालिवाहनः
समुद्रगुप्तः श्रीहर्षः शैलेंद्रो बप्परावलः ॥२३॥
लाचिद्भास्कर वर्मा च यशोधर्मा च हूणजित्‌
श्रीकृष्णदेवरायश्च ललितादित्य उद्बलः ॥२४॥
मुसुनूरिनायकौ तौ प्रतापः शिव भूपतिः
रणजितसिंह इत्येते वीरा विख्यात विक्रमाः ॥२५॥
वैज्ञानिकाश्च कपिलः कणादः शुश्रुतस्तथा
चरको भास्कराचार्यो वराहमिहिर सुधीः ॥२६॥
नागार्जुन भरद्वाज आर्यभट्टो वसुर्बुधः
ध्येयो वेंकट रामश्च विज्ञा रामानुजायः ॥२७॥
रामकृष्णो दयानंदो रवींद्रो राममोहनः
रामतीर्थोऽरविंदश्च विवेकानंद उद्यशः ॥२८॥
दादाभाई गोपबंधुः टिळको गांधी रादृताः
रमणो मालवीयश्च श्री सुब्रमण्य भारती ॥२९॥
सुभाषः प्रणवानंदः क्रांतिवीरो विनायकः
ठक्करो भीमरावश्च फुले नारायणो गुरुः ॥३०॥
संघशक्ति प्रणेतारौ केशवो माधवस्तथा
स्मरणीय सदैवैते नवचैतन्यदायकाः ॥३१॥
अनुक्ता ये भक्ताः प्रभुचरण संसक्तहृदयाः
अनिर्दिष्ट  वीरा अधिसमरमुद्ध्वस्तरि पवः
समाजोद्धर्तारः सुहितकर विज्ञान निपुणाः
नमस्तेभ्यो भूयात्सकल सुजनेभ्यः प्रतिदिनम्‌ ॥ ३२॥
इदमेकात्मता स्तोत्रं श्रद्धया यः सदा पठेत्‌
स राष्ट्रधर्म निष्ठावानखंडं भारतं स्मरेत्‌ ॥३३॥


एकता मंत्र


यं वैदिका मन्त्रद्रष: पुराणा

इन्द्रम्यमंमात्रिश्वानमाहु:|
वेदान्तिनोSनिर्वचयमेकं   
यं ब्रह्मशब्देन विनिर्दिशान्ति||१||

शैवा यमीशंशिवं इत्यवोचन्
यं वैष्णवा विष्णुरिति स्तुवन्ति|
बुद्धस्तथाSर्हन्निति बौद्धजैना:
सत्-श्री-अकालेति च सिक्ख संत:||२||

शास्तेति केचित कतिचित कुमार:
स्वामीति मातेति पितेति भक्त्या |  
यंप्रार्थयन्ते जगदिशितारं
स: एक एव प्रभुरद्वितीय: ||३||     


प्रार्थना

नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे
त्वया हिन्दुभूमे सुखं वर्धितोहम् ।
महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे
पतत्वेष कायो नमस्ते नमस्ते ।।१।।
प्रभो शक्तिमन् हिन्दुराष्ट्राङ्गभूता
इमे सादरं त्वां नमामो वयम्
त्वदीयाय कार्याय बध्दा कटीयं
शुभामाशिषं देहि तत्पूर्तये ।
अजय्यां च विश्वस्य देहीश शक्तिं
सुशीलं जगद्येन नम्रं भवेत्
श्रुतं चैव यत्कण्टकाकीर्ण मार्गं
स्वयं स्वीकृतं नः सुगं कारयेत् ।।२।।
समुत्कर्षनिःश्रेयस्यैकमुग्रं
परं साधनं नाम वीरव्रतम्
तदन्तः स्फुरत्वक्षया ध्येयनिष्ठा
हृदन्तः प्रजागर्तु तीव्रानिशम् ।
विजेत्री च नः संहता कार्यशक्तिर्
विधायास्य धर्मस्य संरक्षणम् ।
परं वैभवं नेतुमेतत् स्वराष्ट्रं
समर्था भवत्वाशिषा ते भृशम् ।।३।।
भारत माता की जय ।।

गायत्री  मन्त्र


ॐ भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्॥

ध्वजारोपणम् मन्त्र

॥ ओम् नमोस्तुते ध्वजाय सकल भुवन जनहिताय विभव सहित विमल चरित बोधकाय मंगलाय ते
सततम् ॥

विद्याभारती के आयाम

विद्या भारती संस्कृति बोध परियोजना

इसके अंतर्गत तीन कार्यक्रम संचालित होते हैं.-
१. अखिल भारतीय संस्कृत ज्ञान परीक्षा 
यह परीक्षा 1980 से विद्या भारती के कुरुक्षेत्र केंद्र से संचालित की जाती है. इसके माध्यम से छात्रों को भारतीय संस्कृतिधर्मइतिहासपर्वोंतीर्थस्थलोंपवित्र नदियों-पर्वतों एवं राष्ट्रीय महापुरुषों की जानकारी अत्यंत रोचक एवं सहज रूप में प्राप्त हो जाती है. इस योजना का लाभ विद्या भारती के अतिरिक्त अन्य विद्यालयों के छात्रअध्यापकमाता-पिता आदि सर्वसाधारण लोग प्राप्त कर रहे हैं. भारतीय संस्कृति एवं राष्ट्रीय एकता को पुष्पित एवं पल्लवित करने में यह योजना पोषक सिद्ध हो रही है. इस वर्ष 2012 में अखिल भारतीय संस्कृति ज्ञान परीक्षा में ....................... लाख से अधिक छात्र सम्मिलित हुए हैं. यह संख्या प्रति वर्ष बढ़ रही है.
२. संस्कृत ज्ञान परीक्षा (आचार्यों के लिए) 
आचार्यों हेतु भी संस्कृति ज्ञान परीक्षा प्रवेशिकामध्यमाउत्तमा एवं प्रज्ञा इन चार स्तरों पर आयोजित के जाती है जिससे कि आचार्यों को भी उपर्युक्त विषयों का ज्ञान हो सके. सामान्यतया प्रचलित शिक्षा प्रणाली से निकले हुए युवक अपने धर्मसंस्कृतिइतिहास आदि विषयों के सामान्य ज्ञान में भी शून्य होते हैं. उनके विकास में यह योजना प्रभावी सिद्ध हो रही है.
३. प्रश्न मंच कार्यक्रम 
प्राथमिकमाध्यमिक एवं उच्चतर माध्यमिक स्तर के अलग-अलग समूहों के लिए प्रश्न मंच कार्यक्रम राष्ट्रीय स्तर तक आयोजित किया जाता है. यह अत्यंत रोचक कार्यक्रम होता हैजिसके माध्यम से छात्र अपनी पुण्य भूमि भारतइतिहास एवं सांस्कृतिक विषयों का परिचय सहज रूप से प्राप्त कर लेते हैं.
४. निबंध प्रतियोगिता
यह कार्यक्रम अखिल भारतीय स्तर पर आयोजित किया जाता है. इसका आयोजन प्राथमिकमाध्यमिक एवं उच्च स्तर माध्यमिक स्तर के छात्रों एवं आचार्यों के लिए अलग-अलग होता है. अपने-अपने समूह में प्रथम तीन स्थान प्राप्त करने वाले प्रतिभागियों को पुरस्कार दिए जाते ह
ैं. निबंध के विषय भी पुण्य भूमि भारतइतिहासज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र के महापुरुष एवं भारतीय संस्कृति से सम्बंधित होते हैं.


संस्कृति बोध परियोजना
विश्व में प्रत्येक देश अपनी संस्कृति, परम्पराओं, जीवन मूल्यों, ज्ञान-विज्ञान एवं महापुरुषों के अनुभवों को राष्ट्रीय धरोहर के रूप में भावी पीढ़ी को शिक्षा के माध्यम से सौंपने का प्रयास करता है। भारत की महान् आध्यात्मिक संस्कृति, श्रेष्ठ परम्पराएं, जीवन मूल्य, महापुरुषों के आदर्श जीवन-चरित्र तथा यहाँ का ज्ञान-विज्ञान इस देश की ही नहीं, विश्व की अमूल्य-निधि माने जाते हैं। परन्तु वर्तमान भारतीय शिक्षा पद्धति द्वारा अपनी इस अप्रतिम राष्ट्रीय निधि को भावी पीढ़ी को सौंपना तो दूर रहा, उससे परिचित कराने का कार्य भी नहीं हो पा रहा है। परिणामतः राष्ट्रीय स्वाभिमान-शून्यता एवं विदेशी संस्कृति के अन्धानुकरण की प्रवृत्ति छात्रों में बढ़ती हुई दिखाई दे रही है। हमारी यह दृढ़ मान्यता है कि यदि हमारे छात्रों को आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के साथ अपनी महान उज्ज्वल संस्कृति, गौरवपूर्ण इतिहास, महापुरुषों के जीवन-चरित्र, श्रेष्ठ राष्ट्रीय परम्पराओं का परिचय कराया जाए तो आज के निराशापूर्ण वातावरण में भी आशा की किरण उत्पन्न होकर विद्यार्थी जगत में अपेक्षित परिवर्तन दिखाई देगा। इस निमित्त विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के द्वारा संचालित मुख्य गतिविधियाँ अग्रलिखित हैं: -


1. संस्कृति बोध परियोजना
o संस्कृति ज्ञान परीक्षा
o संस्कृति ज्ञान प्रश्नमंच
o निबन्ध लेखन प्रतियोगिता (छात्रों की)
o निबन्ध लेखन प्रतियोगिता (आचार्यों की
o आचार्य संस्कृति ज्ञान परीक्षा(प्रवेशिका, मध्यमा, उत्तमा)
o अखिल भारतीय प्रज्ञा परीक्षा

2. चित्र व साहित्य प्रकाशन एवं शैक्षिक सी.डी. आदि का निर्माण।

3. ज्ञान-विज्ञान मेला
विज्ञान प्रदर्शनी, प्रश्न मंच तथा विषय प्रस्तुति (पत्र वाचन) संस्कृति ज्ञान, प्रश्नमंच, विषय प्रस्तुति, वैदिक गणित प्रश्नमंच, पत्र वाचन आदि।

4. विचार गोष्ठियों एवं शोध गोष्ठियों का आयोजन।

5. संगीत केन्द्र, संगीत आचार्य प्रशिक्षण एवं कला पर्व का आयोजन।

6. संवेदनशील एवं उपेक्षित क्षेत्रों में शिक्षा प्रसार के लिए आर्थिक सहायता करना।

7. लेह(लद्दाख) संस्कृति केंद्र का संचालन

शिशु वाटिका (पूर्व प्राथमिक शिक्षा)
भारत में सामान्यता प्राथमिक विद्यालयों में ६ वर्ष की आयु पूर्ण होने पर बालक कक्षा प्रथम में प्रवेश लेकर अपने औपचारिक शिक्षा आरम्भ करता है. वर्ष से वर्ष का उसका समय प्रायः परिवार में ही व्यतीत होता है. प्राचीन काल में भारत में जब परिवार संस्था सांस्कृतिक दृष्टि से सशक्त थी उस समय बालक परिवार के स्नेहपूर्ण वातावरण में रहकर योग्य संस्कार ग्रहण कर विकास करता था. माता ही उसकी प्रथम शिक्षिका होती थी. किन्तु आधुनिक काल में औद्योगिक विकास एवं पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव विशेष रूप से नगरों मेंपरिवारों पर भी हुआ और इसके परिणामस्वरूप वर्ष का होते ही बालक को स्कूल भेजने की आवश्यकता अनुभव होने लगी. नगरों में इस आयु वर्ग के बच्चों के लिए "मोंटेसरी", "किंडरगार्टन" या नर्सरी स्कूलों के नाम पर विद्यालयों की संख्या बढ़ने लगी. नगरों एवं महानगरों के गली-गली में ये विद्यालय खुल गए और संचालकों के लिए व्यवसाय के रूप में अच्छे धनार्जन करने के साधन बन गए.
मोंटेसरी या किंडरगार्टन के नाम पर चलने वाले इन विद्यालयों में कोमल शिशुओं पर शिक्षा की दृष्टि से घोर अत्याचार होता है. भारी-भारी बस्तों के बोझ ने इनके बचपन को उनसे छीन लिया. अंग्रेजी माध्यम के नाम पर पश्चिमीकरण की प्रक्रिया तीव्र गति से चल रही है. देश के लिए घातक इस परिस्थिति को देखकर विद्या भारती ने पूर्व प्राथमिक शिक्षा की ओर विशेष रूप से ध्यान केन्द्रित किया. भारतीय संस्कृति एवं स्वदेशी परिवेश के अनुरूप शिशु शिक्षा पद्धति "शिशु वाटिका" का विकास किया. शिशु का शारीरिकमानसिकभावात्मकसामाजिक एवं आध्यात्मिक विकास की अनौपचारिक शिक्षा पद्धति "शिशु वाटिका" के नाम से प्रचलित हुई. अक्षर ज्ञान और अंक ज्ञान के लिए पुस्तकों और कापियों के बोझ से शिशु को मुक्ति प्रदान की गयी. खेलगीतकथा कथनइन्द्रिय विकासभाषा-कौशलविज्ञान अनुभव,रचनात्मक-कार्यमुक्त व्यवसायचित्रकला-हस्तकलादैनन्दिन जीवन व्यवहार आदि के अनौपचारिक कार्यकलापों के माध्यम से "शिशु वाटिका" कक्षाएँ शिशुओं की आनंद भरी किलकारियों से गूंजती हैं और शिशु सहज भाव से शिक्षा और संस्कार प्राप्त कर विकास करते हैं.
विद्या भारती ने शिशुओं के साथ उनके माता-पिता एवं परिवारों को भी प्रशिक्षित एवं संस्कारित करने का कार्यक्रम "शिशु वाटिका" के अंतर्गत अपनाया है. शिशु के समुचित विकास में परिवार विशेष रूप से माता का दायित्व है. इस दायित्व बोध का जागरण एवं हिंदुत्व के संस्कारों से युक्त घाट का वातावरण निर्माण करने का प्रयास देश भर में "शिशु वाटिका" के माध्यम से हो रहा है.

अखिल भारतीय खेलकूद समारोह
विद्या भारती ने प.पू. डॉ. हेडगेवार के जन्म शताब्दी वर्ष 1988-89 से अखिल भारतीय खेलकूद समारोह का आयोजन प्रारम्भ किया है. इस समारोह में बालकिशोरतरुण अर्थात कक्षा अष्टम तककक्षा दशम तककक्षा द्वादश तक के छात्र-छात्राएँ अलग-अलग समूहों में भाग लेते हैं. कबड्डीखो-खोकुश्तीजूडो,वालीबाल आदि खेलकूद (एथलेटिक्स) के विषय रहते हैं. प्रत्येक खिलाड़ी अधिक से अधिक तीन खेलों में भाग ले सकता है. यह खेलकूद कार्यक्रम विद्यालय स्तर से प्रारम्भ होकर जिलासंभागप्रदेशक्षेत्र एवं अंत में अखिल भारतीय स्तर तक संपन्न होता है. क्षेत्र में विभिन्न खेलों में प्रथम स्थान प्राप्त करने वाले खिलाड़ी छात्र-छात्राएँ ही अखिल भारतीय स्तर पर भाग ले सकते हैं.
इस खेलकूद समारोह में प्रतिभागी छात्र-छात्राएँ विश्व रिकॉर्ड के बराबरी करने की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. यह विद्या भारती एवं देश के लिए गौरव की बात है. हमारे युवक बलवान हों. युवक-युवतियां बलवान होंगे तो भारत बलवान होगा. बल के साथ संस्कार भी हों - बिना संस्कार के बलशाली विवेकहीन हो जाता है. समाज को उसका लाभ नहीं मिल पाता. संस्कारित बलवान युवक ही राष्ट्र की रक्षा कर सकता है. विद्या भारती इसी ध्येय वाक्य को लेकर खेलकूद समारोह आयोजित करती है. इस खेलकूद समारोह का सबसे आकर्षण एवं प्रभावी स्वरुप यह होता है कि इसमें लघु भारत के दर्शन होते हैं. राष्ट्रीय एकात्मकता का सहजभाव सभी के मन मैं हिलोरे लेने लगता है. एस.जी.एफ़.आई. ने इसे मान्यता प्रदान की है.

पर्यावरण शुद्धि हेतु वृक्षारोपण अभियान
आज विश्व में पर्यावरण प्रदूषण के कारण मानव समाज में भारी चिंता व्याप्त है. सभी देश इस प्रदूषण को रोकने के लिए प्रयत्नशील हैं. विद्या भारती ने भी अपने विद्यालयों में छात्रों द्वारा पर्यावरण शुद्धि हेतु वृक्षारोपण अभियान प्रारंभ किया है. छात्रोंआचार्यों एवं अभिभावकों में इस अभियान के कारण पर्यावरण के प्रति चेतना एवं प्रकृति के प्रति प्रेम का जागरण हो रहा है. उत्तर प्रदेश एवं महाकौशल प्रान्त में इस दिशा में योजनाबद्ध प्रयास हो रहा है. छात्रों द्वारा लाखों की संख्या में वृक्षारोपण प्रतिवर्ष किया जा रहा है. आशा है अन्य प्रदेशों में भी इस दृष्टि से अपेक्षित योजना बनाकर कार्य प्रारंभ हो जायेगा

परिवारों में संस्कारक्षम वातावरण
आचार्यों द्वारा परिवारों में जाकर अभिभावकों से संपर्क स्थापित करना विद्या भारती के विद्यालयों के शिक्षण एवं संस्कार प्रक्रिया का अंग माना जाता है. बालकों को अपनी संस्कृतिधर्म एवं सामाजिक चेतना के जो संस्कार विद्यालय में प्राप्त हो रहे हैं वे उन्हें परिवारों में भी मिलें तभी उनके जीवन का सही विकास संभव होता है. आचार्यों एवं अभिभावकों के निरंतर एवं सजीव संपर्क के कारण परिवारों में संस्कारक्षम वातावरण निर्मित करने में सफलता प्राप्त की है. पुण्यभूमि भारतश्रीराम एवं अन्य महापुरुषों के चित्रहिन्दू तिथि-पंचांग आदि लाखों के संख्या में परिवारों में पहुंचे हैं.
आज परिवारों में विशेष रूप से महानगरों में ईसाईयों के समान पाश्चात्य विधि से बालकों के जन्मदिवस मानाने के प्रथा चल पड़ी है. विद्या भारती ने हिन्दू विधि से जन्म दिवस मनाने सम्बन्धी एक पुस्तिका एवं गीत कैसेट तेयार कराकर छात्रों के घरों में पहुंचाए हैं. इसके कारण घरों में हिंदुत्व का वातावरण निर्मित हुआ है. प्रातः स्मरणएकात्मता स्तोत्र एवं भोजन-मन्त्र नित्य बोलने का प्रचलन भी परिवारों में बढ़ रहा है

पूर्व छात्र परिषदें
अनेक प्रान्तों में विद्या भारती का कार्य कई वर्षों से चलने के कारण अपने विद्यालयों में पढ़े हुए छात्र बड़ी संख्या में समाज में प्रतिष्ठित हो चुके हैं. इन पूर्व छात्रों से सतत संपर्क बना रहेइस उद्देश्य से सभी विद्यालयों में एवं प्रांतीय स्तर पर "पूर्व छात्र परिषदों" का संगठन सक्रिय है. इससे उनके संस्कारों का तो पुनर्जागरण होता ही हैसाथ ही विद्या भारती के अनेक सेवा प्रकल्पों में उनकी व्यक्तिगत तथा आर्थिक रूप में सक्रिय सहभागिता रहती है. उत्तर प्रदेशमध्य प्रदेशआन्ध्र प्रदेश आदि अनेक प्रदेशों में लाखों की संख्या में पूर्व छात्र सक्रिय हैं

संस्कार केंद्र योजना
भारत में ही नहीं अपितु विश्व में यह सबसे बड़ा गैर सरकारी शैक्षणिक संगठन है. इसका कार्य समाज की सहायता के बल पर प्रगति की ओर अग्रसर हो रहा है. विद्या भारती का कार्य प्रारम्भ से आज कई गुना बढ़ गया है. किन्तु ये सब आंकड़े समाज की शैक्षिक आवश्यकताओं एवं देश की विशालता की तुलना में बहुत कम हैं. विद्या भारती के मानवीय एवं आर्थिक संसाधनों की भी एक सीमा है. वनवासी पिछड़े एवं उपेक्षित क्षेत्रों में विद्यालय निशुल्क चलाने के साथ-साथ छात्रों के भोजनवस्त्रपुस्तकों आदि की भी संस्था की ओर से व्यवस्था करनी होती है क्योंकि उन क्षेत्रों में निर्धनता एवं अभावग्रस्त समाज को दो समय पेट भरकर भोजन भी नहीं मिलता. फिर वे अपने बच्चों की शिक्षा के लिए व्यय कहाँ से कर सकते हैं.
देश और समाज की इस अवस्था में और विद्या भारती अपने सीमित साधनों के कारण अधिक विद्यालय स्थापित करने में असमर्थ है. अतः विद्या भारती ने संस्कार केंद्र जिनको सरकारी प्रचलित भाषा में एकल शिक्षक विद्यालय कहा जाता हैअधिक से अधिक संख्या में खोलने की देशव्यापी योजना बनायी है. इन केन्द्रों पर साक्षरतास्वाध्यायस्वावलंबनसंस्कृतिस्वदेश प्रेम एवं सामाजिक समरसता के अनौपचारिक कार्यक्रम चलते हैं. ऐसे बालक-बालिकाएं जो पारिवारिक विवशतावश अथवा विद्यालयों की समीप में व्यवस्था न होने के कारण शिक्षा से वंचित रह जाते हैं. उन्हें विशेष रूप से इन केन्द्रों पर एकत्रित कर साक्षर करने का प्रयास किया जाता है. जो बालक-बालिकाएं विद्यालय तो जाते हैं किन्तु पारिवारिक परिवेश के कारण शिक्षा में पिछड़ जाते हैं. उन्हें विशेष शिक्षण की व्यवस्था कर उनको अपनी कक्षा के स्तर के योग्य बनाया जाता है. गीतकहानीखेलअभिनय आदि के क्रियाकलापों के माध्यम से इन्हें संस्कारित एवं विकसित किया जाता है. विद्या भारती के संस्कार केंद्र चार प्रकार के क्षेत्रों में चलाये जाते हैं.
१. नगरों की उपेक्षित बस्तियों अर्थात झुग्गी-झोंपड़ियों में.
२. नगरों में कान्वेंट या अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों के बालक-बालिकाओं के लिए. ये बालक-बालिकाएं भी भारतीय संस्कृति एवं स्वधर्म के संस्कारों से हीन अर्द्ध-विकसित रहते हैं. अभिजात्य वर्ग के ये बालक-बालिकाएं प्रायः समाज के लिए अभिशाप के रूप में सिद्ध हो रहे हैं. अतः विद्या भारती ने इनके लिए संस्कार केन्द्रों की व्यवस्था की है.
३. ग्रामीण क्षेत्रों में.
४. वनवासी क्षेत्रों में.
इन संस्कार केन्द्रों पर बालक-बालिकाओं के लिए शिक्षा और संस्कारों की व्यवस्था रहती ही है. साथ ही इनके माता-पिता एवं परिवारजनों में भी अनौपचारिक एवं संपर्क कार्यकर्मों के माध्यम से स्वस्थसुसंस्कृत,व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन की चेतना जागृत की जाती है. संस्कार केन्द्रों की यह अभिनव योजना पू. डॉ. हेडगेवार जी की जन्मशताब्दी 1988-89 के अवसर पर विशेष अभियान लेकर आरम्भ की गयी. विद्या भारती ने अपने विद्यालयों से आग्रह किया है कि प्रत्येक विद्यालय कम से कम एक संस्कार केंद्र अवश्य चलाए. आशा है संस्कार केंद्र योजना समाज और सेवावृत्ति कार्यकर्ताओं के सहयोग से अवश्य सफल होगी

आचार्य प्रशिक्षण कार्यक्रम
देशभर में आचार्यों के प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन सतत किया जाता है. पूर्णकालिक आचार्यों के प्रशिक्षण के लिए आदर्श विद्या मंदिर स्नातकोत्तर शिक्षा महाविद्यालय जयपुरराजस्थान में है. जहाँ विद्या भारती के आचार्यों का निर्माण हो रहा है. इसी प्रकार का एक शिक्षा महाविद्यालय अहमदनगर (महाराष्ट्र) में है.
इसके अतिरिक्त आचार्यों के लिए 10 प्रशिक्षण विद्यालय विभिन्न प्रदेशों में चल रहे हैं.
वनवासी क्षेत्रों के आचार्यों के लिए प्रशिक्षण का प्रबंध रांचीबिहार में है.
इन केन्द्रों के अतिरिक्त आचार्यों के प्रशिक्षण एवं विकास हेतु प्रदेश एवं क्षेत्र के अनुसार "आचार्य प्रशिक्षण वर्ग" आयोजित किये जाते हैं जो दस दिन से लेकर दो माह के अवधि के होते हैं. प्रशिक्षित आचार्य ही विद्या भारती के कार्य की प्रगति के आधार हैं.

विद्या भारती प्रकाशन
१. "विद्या भारती प्रदीपिका" त्रैमासिक पत्रिकादिल्ली से प्रकाशित होती है.
२. "देवपुत्र" मासिक पत्रिका बाल-किशोर छात्रों के लिए इंदौर से प्रकाशित होती है.
३. "भारतीय शिक्षा शोध पत्रिका" लखनऊ से प्रकाशित होती है.
इसके अतिरिक्त अन्य साहित्यिक एवं संस्कृति ज्ञान परीक्षा सम्बन्धी पुस्तकें कुरुक्षेत्र से प्रकाशित होती हैं.

विद्या भारती शिक्षण तकनीकी विभाग
वर्तमान युग में विज्ञान और तकनीकी का असीमित विकास हुआ है और हो रहा है. शिक्षा एक जीवंत संस्कार प्रक्रिया है जिसमें शिक्षक/आचार्य की भूमिका महत्वपूर्ण है. उसका स्थान यंत्र नहीं ले सकता. फिर भी शिक्षण सहायक सामग्री के रूप में आधुनिक विज्ञान-तकनीकी का उपयोग करने की दिशा में विद्या भारती प्रयत्नशील है. दृश्य-श्रव्य शिक्षण सामग्री के प्रयोग को प्रोत्साहन दिया जा रहा है. श्रव्य-ध्वनि मुद्रिकाएँ तैयार कराई गई हैं. जिनका अनेक विषयों के शिक्षण में उपयोग होता है. एक कैसेट्स एवं फिल्म लाइब्रेरी भी कुरुक्षेत्र में स्थापित की गयी है. इस शिक्षण तकनीकी विभाग के विकास की अनेक योजनायें विचाराधीन हैं. 

आवासीय विद्यालय
विद्या भारती से सम्बद्ध आवासीय विद्यालय इस समय देशभर में चल रहे हैं. लगभग हर प्रान्त में एक आदर्श आवासीय विद्यालय की स्थापना हो चुकी है. इन आवासीय विद्यालयों में बालक चौबीस घंटे रहता है. प्रातः ब्रह्म मुहूर्त में जागरण से रात्रि दस बजे तक आदर्श दिनचर्या का पालन करते हुए वे शिक्षण और सद्संस्कारों के वातावरण में विकास करते हैं. ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में उच्च स्तर तो प्राप्त करते ही हैंसाथ ही भारतीय संस्कृतिधर्म एवं राष्ट्र भक्ति आदि जीवन मूल्यों से उनका जीवन पुष्पित एवं पल्लवित होकर सद्गुणों से सुगन्धित होता रहता है. दिनभर में इस समय 66 आवासीय विद्यालय हैं. 

भारतीय शिक्षा शोध संस्थान
आचार्यों के द्वारा शिक्षण में नए-नए प्रयोग एवं शोध (रिसर्च) करने के लिएजबलपुरउज्जैनजयपुर,चंडीगढ़मेरठ और वाराणसी में शोध केंद्र खोले गए हैं. भारतीय शिक्षा शोध संस्थानलखनऊ में स्थित है. जहाँ से "भारतीय शिक्षा शोध पत्रिका" का प्रकाशन नियमित रूप से होता है. यह पत्रिका विशेष रूप से आचार्यों के लिए प्रेरणादायक एवं लाभप्रद है. शोध कार्य का मुख्य क्षेत्र शिक्षण पद्धतिभारतीय शिक्षा मनोविज्ञानअभिवृत्तियों का मापनपरीक्षण एवं उपलब्धियों का मूल्यांकन आदि करना है

विद्या भारती राष्ट्रीय विद्वत परिषद्
राष्ट्रीयक्षेत्रीय एवं प्रदेश स्तर पर विद्या भारती की विद्वत परिषदें गठित हैं. देश के विख्यात शिक्षाविदों एवं शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को इन परिषदों में मानसेवी सदस्यों के रूप में रखा गया है. समय-समय पर आवश्यकतानुसार राष्ट्रीयक्षेत्रीय एवं प्रदेश स्तर पर गोष्ठियां एवं सम्मेलन आयोजित किये जाते हैं. विद्या भारती को इन विशेषज्ञों एवं विद्वानों का परामर्श एवं मार्गदर्शन प्राप्त होता रहता है जिसके कारण कार्य को गति प्राप्त होती है.
कार्य योजना :
१. भारतीय संस्कृति एवं जीवनादर्शों के अनुरूप शिक्षा दर्शन विकसित करना जिससे अनुप्राणित होकर शिक्षा के लिए समर्पित कार्यकर्ता राष्ट्र की पुनर्निर्माण के पावन लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में विश्वासपूर्वक बढ़ सकें.
२. शिक्षा का ऐसा स्वरुप विकसित करना जिसके माध्यम से भारत के अमूल्य आध्यामिक निधिपरम सत्य के अनुसन्धान में पूर्व पुरुषों के अनुभव एवं गौरवशाली परम्पराओं की राष्ट्रीय थाती को वर्तमान पीढ़ी को सौंपा जा सके और उसके समृद्धि में वह अपना योगदान करने में समर्थ हो सके.
३. विश्व के आधुनिकतम ज्ञान-विज्ञान एवं तकनीकी उपलब्धियों का पूर्ण उपयोग करते हुए ऐसी शिक्षण प्रणाली एवं संसाधनों को विकसित करना है जिससे छात्रों के सर्वांगीण विकास के शैक्षिक उद्देश्यों एवं लक्ष्यों के प्राप्ति सुलभ हो सके.
४. शारीरिकयोग एवं आध्यात्मिकसंगीत तथा संस्कृत शिक्षा के राष्ट्रीय पाठ्यक्रमोंसहपाठ्य क्रियाकलापों एवं अनौपचारिक शिक्षा के आयोजनों से छात्रों में राष्ट्रीय एकताचरित्रिक एवं सांस्कृतिक विकास को सुदृढ़ करना.
५. शिक्षण-प्रशिक्षण कार्यक्रमों को विभिन्न स्तरों पर व्यापक एवं प्रभावी रूप से संचालित करना जिससे कुशलचरित्रवान एवं समर्पित शिक्षकों का निर्माण हो सके.
६. आधारभूत एवं व्यावहारिक अनुसन्धान एवं विकास के कार्यक्रमों का सञ्चालन एवं निर्देशन करना तथा भारतीय मनोविज्ञान को शिक्षण प्रक्रिया का आधार बनाने हेतु कार्य करना.
७. उपर्युक्त उद्देश्यों से अनुप्राणित देश में चल रहे शिक्षा संस्थानों को सम्बद्ध करना तथा उनका मार्गदर्शन करना. विशेष रूप से ग्रामीणजनजातीय एवं उपेक्षित क्षेत्रों में कार्य विस्तार करना तथा इन क्षेत्रों में दिशा-दर्शी प्रकल्प स्थापित करना.
८. विद्या भारती राष्ट्रीय विद्वत्त परिषद् के माध्यम से राष्ट्रीय एवं प्रदेश स्तर की शैक्षिक संगोष्ठियां एवं परिचर्चाएं आयोजित करना तथा शिक्षाविदों एवं विचारकों का सहयोग एवं परामर्श प्राप्त करना.
९. भारत सरकार की राष्ट्रीय शैक्षिक योजनाओं एवं कार्यक्रमों में आवश्यक सहयोग एवं परामर्श प्रदान करना.
१०. देश-विदेश में चल रहे शैक्षिक प्रयोगों एवं अनुभवों के आदान-प्रदान के माध्यम के रूप में कार्य करना एवं उनसे सक्रिय संपर्क स्थापित करना. 

उपेक्षित बस्तियों (झुग्गी-झोपड़ियों) में विद्या भारती का कार्य
भारत में झुग्गी-झोपड़ियों में कई करोड़ जनसँख्या निवास करती है. अधिकतर ये बस्तियां रेलवे लाइन तथा कल-कारखानों के आस-पास पड़ी खुली भूमि पर बस गयी हैं. हमारे इस समाज के बंधुओं के परिवार के 8-10 लोग एक छोटी सी झोंपड़ी में गुजर करते हैं. उसी में सोते और खाना पकाते हैं. शौचालय एवं स्नान एवं पीने के लिए पानी की भी समस्या रहती है. इसीलिये किसी ने ऐसी बस्तियों को "संसार के बड़े-बड़े कमोट कहा है." नारकीय जीवन व्यतीत करने वाले इन लोगों के बच्चे शिक्षा और संस्कारों से तो वंचित रहते ही हैं.
विद्या भारती ने अपने इन बांधवों की बस्तियों में शिक्षा एवं संस्कार प्रदान करने की ओर ध्यान केन्द्रित किया है. अपने विद्यालयों से आग्रह किया जा रहा है कि प्रत्येक विद्यालय एक उपेक्षित बस्ती को गोद लेकर वहां "संस्कार केंद्र" (सिंगल टीचर स्कूल) खोले. विद्यालय और संस्कार केंद्र में प्रेम और आत्मीयता का सम्बन्ध स्थापित करें. पू. डॉ. हेडगेवार जी की जन्मशताब्दी के अवसर पर विद्या भारती ने "संस्कार केंद्र" खोलने के लिए विशेष अभियान लिया. इस समय 3679 संस्कार केंद्र इन बस्तियों में चल रहे हैं. स्वामी विवेकानंद के शब्दों में "नर सेवा नारायण सेवा है." इस भावना को विद्या भारती के विद्यालयों में व्यावहारिक रूप प्रदान किया जा रहा है. शिक्षा एवं संस्कारों के साथ-साथ ये संस्कार केंद्र सामाजिक समरसतास्वास्थ्यस्वावलंबनसंस्कृति एवं स्वदेश प्रेम की भावना के जागरण का कार्य अपने इन उपेक्षित बस्तियों में निवास कर रहे समाज मेंकर रहे हैं.
विद्या भारती ने यह प्रयास भी किया है कि बड़े नगरों में तीन-चार विद्या मंदिर मिलाकर एक पूर्ण विद्यालय इन उपेक्षित बस्तियों में चलायें और मिलकर विद्यालय का पूरा व्यय वहां करें. इस प्रकार के अनेक विद्यालय भी इन उपेक्षित बस्तियों में चल रहे हैं. समाज से इनके लिए आर्थिक सहयोग भी प्राप्त हो रहा है. इन बस्तियों के निवासियों में तथा शेष समाज में भी सामाजिक समरसता तथा हिंदुत्व के भाव का जागरण हो रहा है. विद्या भारती ने मुख्य रूप से नवीन पीढ़ी में अपने इन समाज बांधवों के प्रति दायित्व-बोध के जागरण का संकल्प लिया है. इसमें हमें सफलता भी प्राप्त हो रही है.